इक़बाल साजिदी का एक शेर है,
अब तू दरवाज़े से अपने नाम की तख़्ती उतार
लफ़्ज़ नंगे हो गए शोहरत भी गाली हो गई
आप इसे पढ़िए, पढ़कर समझिए साथ ही मैं भी कुछ अर्ज़ करता चलता हूं।
सालों पहले 'रवीश की रिपोर्ट' मेरा सबसे पसंदीदा कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम टीवी पत्रकारिता के बेतुके और सनसनीखेज आइटम नंबर्स के बीच ठोस पत्रकारिता और समसामयिक विमर्श का चमकता सितारा था।
वो रवीश मुझे आज तक सताता है। गलियों, बाज़ारों, चौराहों की धूल के बीच रवीश उसी धूल में मिल चुके बेहद आम लोगों के मुद्दों को जिस संवेदनशीलता से उठाता था उसकी मिसाल टीवी पत्रकारिता में मिलना मुश्किल है।
पान खाने के शौक़ीन चूने की छोटी छोटी डिब्बियों से परिचित होंगे। दिल्ली की गलियों में बेहद मामूली मजदूरी पर चूने को इन डिब्बियों में भरने वाली महिलाओं की बदहाली पर की गई उनकी रिपोर्ट मुझे आज भी याद है।
दरअसल मीडिया में पत्रकार और समाचार के बीच जीवन के सच की भूमिका होती है। अगर वही खोखला होता है तो मीडियाकर्मी और उसका पूरा काम खोखला हो जाता है।
रवीश जब ये कार्यक्रम करते हुए रिपोर्टिंग करते थे तब उनकी शालीन उपस्थिति और सुलझी हुई शैली के अतिरिक्त उसमें जो एक अतिरिक्त जीवन का सत्य बोल रहा होता था और वह उनके ठोस मीडियाकर्म का परिचायक था।
रवीश के पास सत्ता के खिलाफ निर्मम व्यंग्य करने की क्षमता तब भी थी। लेकिन वह किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बल्कि संस्थागत थी।
आज के आत्ममुग्ध रवीश और उस सरोकारी रवीश में यही फर्क है। ये फर्क क्यों आया उस पर काफी लिखा जा चुका है और सुधि पाठक स्वयं भी यह भांपने में समर्थ हैं।
आज एनडीटीवी ने एक मिथक बनाया है जिसका चेहरा रवीश कुमार हैं। जिसके मुताबिक उनके यहां बाकी के मीडिया से बिल्कुल अलग प्रकार का मीडियाकर्म होता है। उसमें खोखले समाचारों की खोखली प्रस्तुतियों की कोई छाया नहीं होती है। जहां अन्य मीडिया हाउसों में राजनीतिक दलों की तरफदारी भरा कोलाहल युक्त प्रपंच गान होता है, वहीं एनडीटीवी में ठोस यथार्थ का मनोरम कलरव गूंजा करता है।
जबकि साफ दिखाई देता है कि वह एक पार्टी और व्यक्ति के खिलाफ अपना अजेंडा चला रहे हैं।
उसको हराने के लिए उन्होनें अपने न्यूज़ रूम को रैली का मैदान तक बना लिया। पत्रकार की तरह नहीं एक प्रतिद्वंद्वी की तरह उसके खिलाफ भाषणबाज़ी की, हर रोज़ की लेकिन फिर भी उसको जीतने से रोक नहीं पाए। आखिर क्यों ?
शायद वो ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनको लगता है कि, पत्रकारिता के अंतिम बचे कथित मीडिया हाउस के नुमाइंदे ही असली पत्रकार हैं। शेष लोग महज़ दलाल हैं जो सत्ता की गोद में बैठ कर मलाई मार रहे हैं।
वो ये भूल जाते हैं कि इसी एनडीटीवी के जलसे कभी राष्ट्रपति भवन में हुआ करते थे। ये बात और है कि तब की सत्ता उनके सपनों की राजकुमारी थी जिसकी नर्म गोद में बैठने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी।
आजकल मोदी भक्तों की तरह एनडीटीवी और रवीश कुमार के भक्तों की संख्या भी काफी ज्यादा हो गई है और ये भी मोदी के भक्तों की ही तरह ट्रोलिंग करते हैं। गोया रवीश कुमार न हुए हरिश्चंद्र हो गए जिनका कहा मिथ्या हो ही नहीं सकता।
इन्हें सबके ऊपर लिखने का अधिकार चाहिए इस शर्त के साथ कि कोई इनके ऊपर न कुछ लिखे न कहे।
कुल मिलाकर रवीश एक ऐसे बेहतरीन पत्रकार हैं, जिनकी मिशन की डगर पर चली पत्रकारिता विभिन्न पड़ावों से चलती आज बीच बाजार में खड़ी है।
क्या ये बाज़ार का दबाव है कि आज पत्रकारिता ही बीच बाजार खड़ी है बिकने को तत्पर, खुद को, खुद की गढ़ी छवि के मुताबिक ख़बरों को बेचने की जुगत में। ऐसी पूर्वाग्रह युक्त पत्रकारिता अपुष्ट ख़बरों को परोसने से भी गुरेज नहीं करती।
रवीश भी पत्रकारिता की इस काली कोठरी में ही खड़े हैं इसलिए अन्य पत्रकारों से ज़्यादा निराश भी वही करते हैं। रवीश एक नाउम्मीदी भी हैं, जब आए थे तो लगा था कि उथली, मटमैली टीवी पत्रकारिता को गहराई देंगे। लेकिन ये नहीं पता था कि उस गहराई में पहुंचकर ये स्वयं ही कश्ती डुबोने वाले नाखुदा हो जाएंगे।
रवीश एक सबक भी हैं, इस बात का कि किसी में रहनुमा तालाश करने की बजाय अपने सरोकारों के लिए हमें खुद को लड़ना पड़ेगा। क्यूंकि भटका हुआ रहनुमा कभी मंजिल पर नहीं पहुंचा सकता।