दंगों पर कविता
दंगों में दंगाई कहाँ मरते हैमरता है सब्जीवाला,रेड़ीवाला इंसान
मरता है बेघर वाला इंसान
दंगाई भाग जाते है
मासूम के घरों में लगाकर आग
धीरे-धीरे वो आग तो बुझ जाती है
पर दिल में सुलगती रहती है
वहीं आग फिर दंगा कराती है
ऐसे ही दंगों की फसल लहलहाती है
दंगों में दंगाई नहीं लुटे जाते है
लुटे जाते है गरीब मजदूर किसान
दंगाई लुट ले जाते है
इनके घरों की आबरू व सारा सामान
और छोड़ जाते है भुखमरी व विलाप
धीरे-धीरे भुखमरी तो ख़त्म हो जाती है
पर कभी नहीं जाती है विलाप
वहीं विलाप फिर दंगा कराती है
ऐसे ही दंगों की फसल लहलहाती है